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कविता

सूरिनाम-डच-गैयाना में भारतवासियों की दशा

मुंशी रहमान खान


शुभ शिक्षा

दोहा

गुरु पद पंकज नाय सिर उर धर सिरजनहार।
सुनहु युवक तुम ध्‍यान धर धर्म विरुद्ध व्‍यवहार।। 1
देश रीति कुलकान तज चलहिं धर्म विपरीति।
मातु पिता परिवार से उल्‍टी पालहिं प्रीति।। 2
यह सब रीति कुरीति लख अस मन कीन्‍ह विचार।
देहुँ सीख दोउ धरम हित खुल जाँय पलक किंवार।। 3


चौपाई

भारतवासी यहं पर आए। धर्म कर्म निज साथहिं लाये।। 1
पाँच वर्ष कन्‍तराक पिताई। सब से राखी सत्‍य मिताई।। 2
हिंदू पालहिं अपने करतब। मुस्लिम पूजहिं निराकार रब।। 3
रहे जिन देश अटल आचारा। नहिं कर सके यहाँ व्‍यवहारा।। 4
धर्म मुताबिक कारज करहीं। धर्म ग्रंथ आज्ञा अनुसारहीं।। 5
नहिं छल कपट न दूसर कर्मा। दोनहुँ पालहिं निज निज धर्मा।। 6
यहि विधि बहुत काल चल गयऊ। धर्म विरुद्ध नहिं कारज भयऊ।। 7
पाले बालक धर्म अनुकूला। दीन्‍ह सीख शुभ नहिं प्रतिकूला।। 8
मातु पिता विद्या पढ़वाई। धम्र ज्ञान सब विधि बतलाई।। 9
अब नव बालक भए सयाने। धर्म कर्म सब विधि पहिचाने।। 10
ताकर फल यहं उलटा भयऊ। धर्म कर्म आकाशहिं गयऊ।। 11
धर्म ग्रंथ पर ध्‍यान न देवैं। उल्‍टी सीख खलन से लेवैं।। 12
छोड़े धर्म कर्म आचारा। ग्रहण कीन्‍ह यूरुप व्‍यवहारा।। 13
दाढ़ी मूँछ दीन्‍ह मुड़वाई। ईसाई की शकल बनाई।। 14
नाऊ को दें डेढ़ रुपैया। टेढ़ा बाल करहुँ तुम भैया।। 15
जहं हबशिन का होय तमाशा। नाचहिं संग में धरकर भेषा।। 16
पियें शराब और मस्‍तावैं। हबशी राग में तान उड़ावैं।। 17
ब्‍याही तिरिया छोड़ें घर में। हबशिन राखहिं जाकर पुर में।। 18
धर्म विरुद्ध सब कारज करहीं। अपने आप नरक महं परहीं।। 19
ऐसा करत लाज नहिं आवत। भला होत हबशी जन्मावत।। 20


दोहा

नहिं राखी पहिचान कछु हिंदू और इस्‍लाम।
नहीं फर्क ईसाई में क्‍योंकर हो सलाम।। 4
जन्‍में ऊँचे वंश में नीची गहि लई चाल।
कहहु धर्म कैसे चलै उपजे वंशज व्‍याल।। 5
नहीं लाज नहिं ईश डर नहीं नरक का ख्‍याल।
धर्म ग्रंथ मानें नहीं भए धर्म के काल।। 6


चौपाई

है हराम मदिरा कर पीना दोनहुँ धरम मनह कर दीना।। 1|
नहिं सोचहिं ये मूरख अंधे। महा पाप लादहिं दोउ कंधे।। 2
गर्म हवा यूरुप की लागी। रीति भाँति सब कुल की त्‍यागी।। 3
शायद सौ में बचे दश बीसा। जिन नहिं ग्रहण कीन्‍ह मद्य सीसा।। 4
जब शरीर में भएउ पसीना। ग्रहण कीन्‍ह मद्यपान प्रवीना।। 5
दाढी़ मूँछ नित्‍य मुड़वावें। बगल में जटा महा गंधावों।। 6
यह देखहु कलिकाल तमासा। धर्म से गंध गंध से नाता।। 7
तिनेहुँ पर जो चेत न होई। कलि को दोष देइ जन कोई।। 8
हिंदुन से जयादह इस्‍लामी। पियें दारू करें कर्म हरामी।। 9
नबि सुन्‍नत मुस्लिम मुड़वावें। दुकान जाय प्‍याला ढरकावें।। 10
यह देखहु इस्‍लामी बच्‍चे। पियें दारू बनें मुस्लिम सच्‍चे।। 11
नीच कर्म कर नहिं शर्मावें। नबी की उम्‍मत लाज लजावें।। 12
पीवें दारू असुर समान। लोटें जस शूकर मस्‍तान।। 13
करें छाँट मुँह तन गंधावै। चाटें कूकुर सम हर्षावै।। 14
है हराम सब बिधि जानत है। ऐसे मुस्लिम पर लानत है।। 15
जानत है पर करत मुटाई। हशर के दिन नहिं होय रिहाई।। 16
नाहक मातु की कोख लजाई। बेहतर जहर खाय मर जाइ।। 17


दोहा

दाढी़ मूँछ मुडा़य कर बन गए यूरुप ज्‍वान।
दारू पीवें हीक भर झूमें जस शैतान।। 7
कुल का नाम नशावहीं पुरखन देवहिं लाज।
धर्म कर्म को छोड़ कर बने फिर सिरताज।। 8
पढ़हु लेख चेतहु धरम हे भारत के लाल।
तजहु रीति अनरीति यह करहुँ धर्म पर ख्‍याल।। 9
अब से लेहु सम्‍हारि तु बढ़ि है तुम्‍हारी शान।
उपजै सुख दुहुँ लोक महं गहु शिक्षा रहमान।। 10


दिवाली व्रत

दिवाली व्रत भारी मैं क्‍यों कर मनाऊँ।
दोनों हाथ खाली तुम्‍हें क्‍या चढा़ऊँ।। टेक


छंद

मनाते थे पुरखा तुम्‍हें मेरे पहले।
लगा सत्‍य श्रद्धा पूजन करते पहले।
मैं तो पडे़ सोता हूँ तुम्‍हें क्‍या जगाऊँ।
दिवाली व्रत भारी मैं क्‍यों कर मनाऊँ।। 1
किया मद्य मत्‍सर ने हृदय बिच अंधेरा।
थेटर नाच हबशिन का हो गया मैं चेरा।।
नहीं ज्ञान घृतक क्‍या दीपक जलाऊँ।
दिवाली व्रत भारी मैं क्‍योंकर मनाऊँ।।2
किया शोक पितु का मैं श्रद्धा मनाकर।
तिलांजल है कर्मन से पीछा छुडा़कर।।
मुडा़ता हूँ मूँछ दाढी़ अब क्‍या मुडा़ऊँ।
दिवाली व्रत भारी मैं क्‍योंकर मनाऊँ।। 3
मुर्गे औ अंडे मेरे कंठ की माला।
पहनूँ पोशाक मैं जाति से निराला।।
मैं तो सुरा पीता हूँ तुम्‍हें क्‍या पिलाऊँ।
दिवाली व्रत भारी मैं क्‍योंकर मनाऊँ।। 4
भक्ष अभक्ष खाता हूँ रहता हूँ बढ़कर।
नहीं खौफ ईश्‍वर का मैं तो जबर नर।।
झुकाया सिर दूसरों को तुम्‍हें क्‍या झुकाऊँ।
दिवाली व्रत भारी मैं क्‍योंकर मनाऊँ।। 5
कहता है रहमान इस छंद को बनाकर।
तजो नीच कर्मन को धर्म को अपनाकर।।
तुम तो बुद्धि ज्ञानी हो तुम्‍हें क्‍या सुनाऊँ।
दिवाली व्रत भारी मैं क्‍योंकर मनाऊँ।। 6

 


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